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टूटते चुनावी मंडप

टूटते चुनावी मंडप  जैसे-जैसे चुनावों के समापन का समय नजदीक आता जा रहा है वैसे-वैसे ही लोगों के अंदर चुनावी उत्साह में गिरावट नजर आ रहा है। पहले गली-कुच्चे, नुक्कड़-चौराहों, बस स्टैंडों आदी पर घंटो सजने वाली चुनावी चौपालें अब उठने लगी है। ऐसे में इसके लिए न केवल मीडिया की भागीदारी बल्कि राजनेता भी जिम्मेदार हैं। एक के बाद एक ताबड़तोड़ रैलियां, जनसभाएं व प्रचार करने वाले राजनेता व उनके साथी चुनाव के होते ही एकदम अदृश्य हो गए हैं।  इसके पीछे निरंतर बदलती देश की राजनीतिक तस्वीर का भी हाथ हैै। क्या कार्यकर्ता, क्या राजनेता सभी के सभी अपने गढ़, अपने घरों को त्याग पहुंच गए काशी। ऐसे में अब उनके संसदीय क्षेत्रा या गढ़ में सजती चुनावी चौपालों का उठना तो लाज्मी ही है। साथ ही मीडिया भी उनके पीछे-पीछे काशी जा पहुंचा है। परंतु मतदाताओं को राजनीतिक मंडप के चुनावी चौपालों को बिखरता देख निराश नहीं होना चाहिए। क्योंकि यह तो राजनीति का मूलमंत्रा बन चुका है कि अपना काम बनता तो भाड़ में जाए जनता।  रजत त्रिपाठी की कच्ची कलम की श्याहि से… 

चुनावी महाभरत की रोमांचक टक्कर

चुनावी महाभरत की रोमांचक टक्कर देश में चुनावी रण शुरू हो चुका है और सभी की नजरें बनारस की सीट पर है। हों भी क्यों न, इस चुनावी महाभरत में सबसे रोमांचक टक्कर होने जा रही है। भाजपा के प्रधनमंत्राी पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और राजधानी दिल्ली की कुर्सी छोड़ भाग खड़े हुए पूर्व मुख्यमंत्राी अरविंद केजरीवाल आमने सामने हैं। ऐसे में यहां की चुनावी सरगर्मी और बढ़ जाती है। यदि बात की जाए मोदी कि तो ये सापफ दिखता है कि मोदी की लहर है परंतु यह मोदी को पूर्ण बहुमत दिला पाएगी यह नहीं यह कहना थोड़ पेचिदा हो जाता है। बनारस कई र्ध्मों का गढ़ है और इस चुनावी बयार में यहां मतदान का ध््रवीकरण हो रहा है। केजरीवाल खुद भी अब बनारस जा पहुंचे है। ऐसें में देखने वाली बात यह होगी कि क्या अपनी कुर्सी के लिए केजरीवाल भी संाप्रदायिक व जातिय राजनीति पर खुलकर उतर आएंगें? देश भर की चुनावी चौपाल में जिकर अब बनारस की तपती चुनावी रण का हो रहा है। और हो भी क्यों न जिस कदर पिछले कुछ महिनों में मीडिया ने केजरीवाल को चढ़ाया है उससे दर्शकों को भी केजरीवाल की रोजाना नई पटकथा देखने की लत लग गई है। ऐसे में पफैसला अब 16 मई को ही ह...

पहले कुर्सी फिर राष्ट्र

                                         पहले कुर्सी फिर राष्ट्र राष्ट्र भक्ति, राष्ट्रीय ध्वज, व राष्ट्र भाषा का सम्मान क्या एक राष्ट्र के कुछ वर्गाें तक ही सीमित है? जी हां, ऐसा प्रश्न उठना लाजमी भी है। जब भारत सरकार के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम सरेआम जनता के समक्ष आकर अपनी लाचारी यह कहते हुए सिद्ध् करते हैं कि उन्हें हिन्दी नहीं आती। यह कहते हुए उन्हें तनिक भी ख्याल नहीं आया कि वो देश भक्ति कि भावनाओं से ओत-प्रोत राष्ट्र के वित्त मंत्री है। चुनावी माहौल में यह कैसी विडंबना है कि राष्ट्र का कार्यभार सभांलने वालों को ही राष्ट्र भाषा का ज्ञान नहीं है। खैर, बोसटन के हार्वर्ड बिज़्नेस स्कूल से पढ़े मंत्री जी से ऐसी उम्मीद कि जा सकती है। परंतु ऐसे में जब देश के चुनावी अखाड़े का मिजाज गरम हो तो यह रवैया उन्हें रणभूमि में धूल  भी चटवा सकता है। एक व्यक्ति विशेष नेता के खिलाफ मंत्री जी का चुनाव न लड़ पाना उनके न जाने कितने राज़ उज...