टूटते चुनावी मंडप जैसे-जैसे चुनावों के समापन का समय नजदीक आता जा रहा है वैसे-वैसे ही लोगों के अंदर चुनावी उत्साह में गिरावट नजर आ रहा है। पहले गली-कुच्चे, नुक्कड़-चौराहों, बस स्टैंडों आदी पर घंटो सजने वाली चुनावी चौपालें अब उठने लगी है। ऐसे में इसके लिए न केवल मीडिया की भागीदारी बल्कि राजनेता भी जिम्मेदार हैं। एक के बाद एक ताबड़तोड़ रैलियां, जनसभाएं व प्रचार करने वाले राजनेता व उनके साथी चुनाव के होते ही एकदम अदृश्य हो गए हैं। इसके पीछे निरंतर बदलती देश की राजनीतिक तस्वीर का भी हाथ हैै। क्या कार्यकर्ता, क्या राजनेता सभी के सभी अपने गढ़, अपने घरों को त्याग पहुंच गए काशी। ऐसे में अब उनके संसदीय क्षेत्रा या गढ़ में सजती चुनावी चौपालों का उठना तो लाज्मी ही है। साथ ही मीडिया भी उनके पीछे-पीछे काशी जा पहुंचा है। परंतु मतदाताओं को राजनीतिक मंडप के चुनावी चौपालों को बिखरता देख निराश नहीं होना चाहिए। क्योंकि यह तो राजनीति का मूलमंत्रा बन चुका है कि अपना काम बनता तो भाड़ में जाए जनता। रजत त्रिपाठी की कच्ची कलम की श्याहि से…