एक बार फ़िर…
भारतीय समाज की सशक्त नारी जिसे दिवाली जैसे अवसरों पर पूजा जाता है और रोज़ाना....
एक बार फिर उसकी इज्जत को तार-तार कर दिया गया। दरिंदो ने सरेआम उसकी आबरू को नौंचा और जनता मूक दर्शक बन देखती रही। यह दर्दनाक घटना है मध्य प्रदेश के खंडवा जिले का जहां एक महिला को फिर महाभारत की द्राैपदी बनाने के लिए मजबूर होने पड़ा। महाभारत की भांति इस पुरूष प्रधान समाज में भी अबला नारी बिलखती रही, तिलमिलाती रही परंतु किसी ने उसकी एक न सुनी। हस्तिनापुर की जगह खंडवा में हुई यह अशोभनीय घटना हैवानियत ओैर दरिंदगी से पूर्ण रही। यहाँ बस र्फक सिर्फ इतना था कि इस बार द्राैपदी को हारने के लिए न तो पांडव थे और न ही बचाने के लिए कोई कृष्ण। खांडवा जिले में एक पति ने ही अपने रिशतेदारों के साथ मिलकर अपनी अर्धांग्नी की इज्जत को तार तार कर दिया। सभी 10 के 10 हैवानों ने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया और जब हवस के इन पुजारियों का मन जब इससे भी ना भरा तो उस महिला को सरेआम नंगा घुमाया गया। दर्द से टूट चुकी, प्यास से छटपटाती, तिलमिलाती बेहोश महिला ने जब पानी मांगा, तो वैहशिपन पर उतारू उन दरिंदो ने उसे जर्बजस्ती अपना मूत्र पिलाया। जिसकी कल्पना मात्रा से ही घिन्न आती हो, उसे उस बहू- बेटी को बर्दास्त करना पड़ा, सहना पड़ा। दरिंदगी का शिकार बनी इस महिला ने ऐसा कभी सपने में भी न सोचा होगा कि जिस गांव में वह सुनहरे कल का सपना ले, दुल्हन बन आई थी, उसे वहां ऐसी नग्न अवस्था में घूमना पडे़गा। जिस भारतीय समाज में स्त्री को गृह लक्ष्मी व दुर्गा जैसे बड़े पूज्नीय शब्दों से सम्बोधित किया जाता है, वहां भले कैसे कोई उन्हें सरेआम नग्न अवस्था में पूरे गांव मे घुमा सकता है? खंडवा जिले में इस हैवानियत का शिकार हुई वो 10 साल के बच्चे की मां अपने ही घर, अपने ही गॉँव, अपनों के ही बीच असहाय, बेबस व लाचार थी। अपनी मूछों को ताव दे बाहर निकलने वाले खांडवा जिले के वो नौजवान न जाने तब कहां अपनी मूंछ मुंडवा आए थे। जब उनके ही घर में उनकी ही भाभी, बहन, चाची की इज्जत को तार तार किया जा रहा था। जो हाथ कभी उस महिला को आशीष देने के लिए उठे थे, उन्ही हाथों ने उसके शरीर एक एक कर को नौंच डाला। क्यों जिस इंसान ने उसे सभी बुराइयों से बचाने का वचन दिया था उसी ने उसे ऐसे जघन्नय दंड से पीड़ा पहुंचाई? आखिर क्यों आर्शीवाद देने वाले हाथों ने ही उसके शरीर के एक एक हिस्से नौंच डाला ? आखिर क्यों एक महिला को ये सब सहना पड़ा? आखिर क्यों एक स्त्री से उसी के घर, उसी के गांव में नंगा नाच करवाया गया? क्या गांव में किसी का भी दिल नहीं पसीजा, क्या किसी को भी सही गलत का फर्क नजर नहीं आया? क्या दर्द में कहराती उस महिला में किसी को भी मां, बहन, भाभी, चाची, दुर्गा या लक्ष्मी का अक्श नजर नहीं आया? या फिर अपनी मर्दनागी का ताल ठोकने वालों ने अपने चेहरे को बांध् लिया था। अपने जागिर को कहीं दूर फेंक दिया था और मुर्दों के भांति मूक बन देखते रहे। मानवता शर्मिंदा कर देने वाला यह कोई पहला वाक्या नहीं है। इससे पहले भी सरेआम नारी की इज़्ज़त को बार बार उछाला जाता रहा है। चाहे यह बदायूं में हो या राष्ट्रिय राजधानी दिल्ली में, रोज़ाना न जाने कितनी महिलाओं को ऐसी दरिंदगी का शिकार होना पड़ता है। २०१२ में हुए दामिनी घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतरे और महिला सुरक्षा को लेकर प्रसाशन से कई सवाल किये गए। जिसके फलस्वरूप नियम क़ानून तो बने पर स्थिति जस की तस ही दिखाई पड़ रही है। बलात्कारिओं के दिल में पुलिस और प्रसाशन का कोई भी डर देखने को नहीं मिलता है। महिलाओं के खिलाफ निरंतर बढ़ते अपराधों में पुलिस की वर्दी भी दागदार नज़र आती है। न जाने ऐसा कितनी बार देखने को मिला है जब पुलिस खुद ही पीड़िता को है, डरती है, धमकाती है। सुरक्षा का वादा करने वाली पुलिस ही मामले को दबा देना चाहती है, वो खुद ही प्राथमिकी दर्ज़ करने में आना-कानी करती है। ऐसे में भला कोई कैसे मदद के लिए पुलिस के पास जाए। पुलिस के ऐसे रवैये से ही बलत्कारी सड़कों पर खुलेआम घूमते हैं, बेधड़क होकर बलत्कार करते है और महिलाओं को छेड़ते हैं। 2013 की नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 98 प्रतिशत बलत्कार के मामलों में दोषी जानकार या रिश्तेदार ही होते है। न जाने ये कैसी विडम्बना है की एक महिला न ही अपने घर में सुरक्षित है और न ही बाहर।
खैर ये अलग बात है कि जो लोग मूक बन सब देखते हैं यदि कल को इनकी अपनी मां-बहन के साथ ऐसा दुष्कर्म हो तो ये छाती पीट-पीटकर रोने से बाज़ नहीं आऐंगें। इनका सूख चुका खून भी उबाल मारने लगेगा और तब ये गला फाड़ फाड़कर प्रसाशन को गाली सुनाएंगे। पर इसके लिए इंतजार करना होग। कब कोई और नया दरिंदा आए और एक नई दरिंदगी को अंजाम दे।
ऐसे में तो ये ही पंक्तियां याद आती हैं, 'पहले वो मेरे शहर में आए, मैं चुप रहा। फिर वो मेरे मौहल्ले में आए, मैं छुप गया और जब वो मेरे घर में आए तो मुझे बचाने वाला कोई न था।'
रजत त्रिपाठी की कच्ची कलम की श्याही से.…
भारतीय समाज की सशक्त नारी जिसे दिवाली जैसे अवसरों पर पूजा जाता है और रोज़ाना.... |
एक बार फिर उसकी इज्जत को तार-तार कर दिया गया। दरिंदो ने सरेआम उसकी आबरू को नौंचा और जनता मूक दर्शक बन देखती रही। यह दर्दनाक घटना है मध्य प्रदेश के खंडवा जिले का जहां एक महिला को फिर महाभारत की द्राैपदी बनाने के लिए मजबूर होने पड़ा। महाभारत की भांति इस पुरूष प्रधान समाज में भी अबला नारी बिलखती रही, तिलमिलाती रही परंतु किसी ने उसकी एक न सुनी। हस्तिनापुर की जगह खंडवा में हुई यह अशोभनीय घटना हैवानियत ओैर दरिंदगी से पूर्ण रही। यहाँ बस र्फक सिर्फ इतना था कि इस बार द्राैपदी को हारने के लिए न तो पांडव थे और न ही बचाने के लिए कोई कृष्ण। खांडवा जिले में एक पति ने ही अपने रिशतेदारों के साथ मिलकर अपनी अर्धांग्नी की इज्जत को तार तार कर दिया। सभी 10 के 10 हैवानों ने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया और जब हवस के इन पुजारियों का मन जब इससे भी ना भरा तो उस महिला को सरेआम नंगा घुमाया गया। दर्द से टूट चुकी, प्यास से छटपटाती, तिलमिलाती बेहोश महिला ने जब पानी मांगा, तो वैहशिपन पर उतारू उन दरिंदो ने उसे जर्बजस्ती अपना मूत्र पिलाया। जिसकी कल्पना मात्रा से ही घिन्न आती हो, उसे उस बहू- बेटी को बर्दास्त करना पड़ा, सहना पड़ा। दरिंदगी का शिकार बनी इस महिला ने ऐसा कभी सपने में भी न सोचा होगा कि जिस गांव में वह सुनहरे कल का सपना ले, दुल्हन बन आई थी, उसे वहां ऐसी नग्न अवस्था में घूमना पडे़गा। जिस भारतीय समाज में स्त्री को गृह लक्ष्मी व दुर्गा जैसे बड़े पूज्नीय शब्दों से सम्बोधित किया जाता है, वहां भले कैसे कोई उन्हें सरेआम नग्न अवस्था में पूरे गांव मे घुमा सकता है? खंडवा जिले में इस हैवानियत का शिकार हुई वो 10 साल के बच्चे की मां अपने ही घर, अपने ही गॉँव, अपनों के ही बीच असहाय, बेबस व लाचार थी। अपनी मूछों को ताव दे बाहर निकलने वाले खांडवा जिले के वो नौजवान न जाने तब कहां अपनी मूंछ मुंडवा आए थे। जब उनके ही घर में उनकी ही भाभी, बहन, चाची की इज्जत को तार तार किया जा रहा था। जो हाथ कभी उस महिला को आशीष देने के लिए उठे थे, उन्ही हाथों ने उसके शरीर एक एक कर को नौंच डाला। क्यों जिस इंसान ने उसे सभी बुराइयों से बचाने का वचन दिया था उसी ने उसे ऐसे जघन्नय दंड से पीड़ा पहुंचाई? आखिर क्यों आर्शीवाद देने वाले हाथों ने ही उसके शरीर के एक एक हिस्से नौंच डाला ? आखिर क्यों एक महिला को ये सब सहना पड़ा? आखिर क्यों एक स्त्री से उसी के घर, उसी के गांव में नंगा नाच करवाया गया? क्या गांव में किसी का भी दिल नहीं पसीजा, क्या किसी को भी सही गलत का फर्क नजर नहीं आया? क्या दर्द में कहराती उस महिला में किसी को भी मां, बहन, भाभी, चाची, दुर्गा या लक्ष्मी का अक्श नजर नहीं आया? या फिर अपनी मर्दनागी का ताल ठोकने वालों ने अपने चेहरे को बांध् लिया था। अपने जागिर को कहीं दूर फेंक दिया था और मुर्दों के भांति मूक बन देखते रहे। मानवता शर्मिंदा कर देने वाला यह कोई पहला वाक्या नहीं है। इससे पहले भी सरेआम नारी की इज़्ज़त को बार बार उछाला जाता रहा है। चाहे यह बदायूं में हो या राष्ट्रिय राजधानी दिल्ली में, रोज़ाना न जाने कितनी महिलाओं को ऐसी दरिंदगी का शिकार होना पड़ता है। २०१२ में हुए दामिनी घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतरे और महिला सुरक्षा को लेकर प्रसाशन से कई सवाल किये गए। जिसके फलस्वरूप नियम क़ानून तो बने पर स्थिति जस की तस ही दिखाई पड़ रही है। बलात्कारिओं के दिल में पुलिस और प्रसाशन का कोई भी डर देखने को नहीं मिलता है। महिलाओं के खिलाफ निरंतर बढ़ते अपराधों में पुलिस की वर्दी भी दागदार नज़र आती है। न जाने ऐसा कितनी बार देखने को मिला है जब पुलिस खुद ही पीड़िता को है, डरती है, धमकाती है। सुरक्षा का वादा करने वाली पुलिस ही मामले को दबा देना चाहती है, वो खुद ही प्राथमिकी दर्ज़ करने में आना-कानी करती है। ऐसे में भला कोई कैसे मदद के लिए पुलिस के पास जाए। पुलिस के ऐसे रवैये से ही बलत्कारी सड़कों पर खुलेआम घूमते हैं, बेधड़क होकर बलत्कार करते है और महिलाओं को छेड़ते हैं। 2013 की नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 98 प्रतिशत बलत्कार के मामलों में दोषी जानकार या रिश्तेदार ही होते है। न जाने ये कैसी विडम्बना है की एक महिला न ही अपने घर में सुरक्षित है और न ही बाहर।
खैर ये अलग बात है कि जो लोग मूक बन सब देखते हैं यदि कल को इनकी अपनी मां-बहन के साथ ऐसा दुष्कर्म हो तो ये छाती पीट-पीटकर रोने से बाज़ नहीं आऐंगें। इनका सूख चुका खून भी उबाल मारने लगेगा और तब ये गला फाड़ फाड़कर प्रसाशन को गाली सुनाएंगे। पर इसके लिए इंतजार करना होग। कब कोई और नया दरिंदा आए और एक नई दरिंदगी को अंजाम दे।
ऐसे में तो ये ही पंक्तियां याद आती हैं, 'पहले वो मेरे शहर में आए, मैं चुप रहा। फिर वो मेरे मौहल्ले में आए, मैं छुप गया और जब वो मेरे घर में आए तो मुझे बचाने वाला कोई न था।'
रजत त्रिपाठी की कच्ची कलम की श्याही से.…
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