Skip to main content

दंगों की आग पर सिकेगी लोकसभा चुनावों की रोटी

दंगों की आग पर सिकेगी लोकसभा चुनावों की रोटी



इंसाफ का इंतजार करती बूढ़ी हो गई आंखें, जख्म पर मोटी परत चढ़ रही थी, पीढ़ी आव्रफोश को दबा आगे बढ़ रही थी, तभी लोकसभा चुनावों ने दस्तक दी और सब दोबारा स्पष्ट रूप से समक्ष आ गया। वो दर्द का मंजर, वो कत्लेआम, वो नरसंहार वापस ताजा हो गया। समुदायों में पूर्वजों के अपमान व नरसंहार के लिए इंसापफ का आव्रफोश जाग गया। देश के तमाम सियासी नेता चुनावों के समीप आते ही एक दूसरे के खिलापफ दंगों की राजनीति खेलना शुरू कर देते हैं। चाहे वो भाजपा के खिलापफ गुजरात के सन् 2002 के दंगों को लेकर हो या पिफर कांग्रेस के खिलापफ सन् 1984 के सिख दंगे हों। सियासत की गरमी इन दंगों से बढ़ती जा रही है। कांग्रेस व भाजपा का तो इतिहास रहा है की ये दोनों अपने सियासी पफायदों के लिए दंगों व समुदायिक बंटवारों का दांव खेलकर आगे बढ़ते गए हैं। परंतु राजधनी में भ्रष्टाचार व आम आदमी के मुद्दों से जीतकर आई आम आदमी पार्टी भी अब समुदायिक बंटवारे की राजनीति में उतर आई है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांध्ी के द्वारा एक टीवी कार्यव्रफम में दिए गए साक्षत्कार में उन्होंने सन् 1984 के सिख दंगों में कुछ कंाग्रेस के नेताओं के हाथ होने की बात मानी। ऐसे में जब लोहा गरम हुआ तो केजरीवाल ने भी सियासी हथौड़ा दे मारा। उन्होंने तीस वर्ष पूर्व दंगों की जांच के लिए विशेष जांच टीम ;एसआइटीद्ध का प्रस्ताव सामने रख दिया। ताकि वो भी वोटों को समुदायिक रूप से बांट, अपना पफायदा बटौर सके। हैरान करने वाली बात यह है कि केजरीवाल को तीस वर्ष पुराने दंगे राहुल गांध्ी के साक्षत्कार के बाद ही क्यों याद आए। यदि उन्हें जनता के दर्द व आंसूओं का मूल्य पता होता तो, वो कुछ महीने पहले ही हुए मुजफ्ररनगर के दंगा पीड़ितों के लिए कुछ कदम उठाते यदि कुछ नहीं तो एक बार उनकी सहानुभूती में दो शब्द ही कह देते। परंतु अब तो, वो भी समुदायिक राजनीति खेलने पर उतर आए हैं। ऐसें में यह लाजमी है आखिरकार केजरीवाल अपने मुद्दों पर असपफल जो हो रहे हैं। तो उनसे ध्यान हटाने के लिए कुछ तो करना ही था। यह देश की आश्चर्यजनक विडंबना है कि देश के राजनैतिज्ञ अब विकास भ्रष्टाचार व मंहगाई के मुद्दों को छोड़, दंगों के आरोप व प्रत्यारोप से चुनावी रणभुमी में जीत का परचम लहरना चाहते है। चुनावी दौर में जहां एक तरपफ इतिहास की गोद में गढ़ चुके दंगों को उखाड़ नेताओं ने हताहत समुदायों के जख्मों को वापस कुरेद दिया है तो वहीं दूसरी तरपफ इससे समुदायों में आव्रफोश का आह्वान भी कर दिया गया है। क्या नेताओं को अपनी जीत के लिए समुदायिक भेदभाव के जरिए ही आगे बढ़ना है? क्या वो दोबारा समुदायों को दंगों की आग में जलाकर अपना सियासी रोटियां पकाना चाहते हैं? यदि ऐसा न होता तो, ये बड़े-बड़े आलीशान बंगलों में रहने वाले नेता, मुजफ्ररनगर के दंगा पीड़ितों का सहारा बने होते। उनके लिए कार्य किया गया होता, उस दंगे की पटकथा रचने वालों व उसके दोषियों के खिलापफ कड़ी जांच हुई होती परंतु नही, यहां तो सत्ता के भूखे नेता गढ़े मुद्दे वापस उखाड़ कर अपना सियासी पफायदा लेना चाहते हैं। उन्हें इस बात का शायद एहसास भी नहीं होगा की जब भी तमाम दंगा पीड़ितों को वो दृश्य याद आते होंगे तो वो कितना सहम जाते होंगें, वो कितने डर जाते होंगें, उनकी अंर्तात्मा में क्या बवंडर उठता होगा। ऐसे खौपफनाक, घिनौने नरसंहार पर राजनीति करने के उपरांत नेताओं को उनके लिए क्षमा का भाव प्रकट करना चाहिए था। जिससे शायद इन गहरे घावों पर कुछ मरहम लगी होती। इन दंगों में मारे गए तमाम लोगों के घर परिवारों के लिए सरकार कुछ मदद कर के भी राजनीतिक पफायदा ले सकती थी परंतु अब यह चुनावी रणभूमि दंगों की रणभूमि का रूप ले चुकी है। बार-बार इतिहास में दपफन हो चुके दंगों को उखाड़ा जाता है, सन् 1984 का दंगा, बटला हाउस एनकउन्टर, गुजरात 2002 के दंगे पर सियासत गरमाई हुई है। सत्ता के लोभ में भूखे हो चुके नेताओं का इन दंगों में हताहत लोगों के दुख, दर्द व जख्म नहीं दिखाई देते हैं। उन्हें नहीं समझ आता कि कैसे इन दंगों के बाद भी इन समुदायों ने अपनी पीढ़ियों को उग्र रूप न देते हुए पाला व बड़ा किया। लेकिन नेताओं को तो इन दंगों की आग से पक्की सत्ता की रोटी नजर आती है। न जाने इन दंगों में कितने ही माताओं ने अपने पुत्रा, युवतियों ने अपने पति, बहनों ने भाई व बच्चों ने पिता खो दिए। न जाने इन दंगों की आड़ में कितनी ही महिलाओं, युवतियों व मासूम बच्चियों के साथ दुष्कर्म किया गया होगा। न जाने कितनी ही मासूम जाने दरिंदगी से ली गई होगी परंतु ये सब सियासी दांव-पेंच के सामने छोटे हैं। इन सब का कोई मोल नहीं है। मोल है तो मात्रा इन दंगों के सहारे समुदायिक वोटोें को अपनी ओर आकर्षित करने का। यह स्थिति स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि आज भारत जैसे लोकतंत्रा में जहां अनेक र्ध्मों, जातियों व समुदायों का वास है, वहां की राजनीति का स्तर कितना गिर गया है। शर्म आती होगी आज के युवाओं को कि वो कैसे देश के वासी हैं, जहां के राजनेता विकास, सुनहरा कल, नई योजानओं व मंहगाई जैसे अहम मुद्दों को छोड़कर तुच्छ घिनौने मुद्दों पर समाज को बांटकर राजनीति खेल रहे हैं। ताकि वो अपनी सियासत  बरकरार रख सके। ऐसी घटिया स्तर की राजनीति से युग-युगांतरों तक की जनता प्रभावित थी और शायद आगे भी रहेगी। राजनेताओं को जनता की भावनाओें की कदर करते हुए, देश की विश्व के समक्ष मज़बूत रूप से पेश करना चाहिए न कि अपने ही घरों में बंटवारा कर, सत्ता हथिया लेनी चाहिए।  

रजत त्रिपाठी कि कच्ची कलम कि श्याही से.… 


Comments

Popular posts from this blog

Phone Call: A bridge after 2 years!

So here it is... back after almost a year... The last time I opened my blog and wrote a piece   (सरकारी प्रेम कहानी)  was Sept. 20th, 2017... Representative Image (Credit: Digit ) It was a lazy noon of Sunday and Vikas was tired of being home for the last four days. He had no one to talk to and nothing to do in these four days. So this Sunday evening he decided to call his old friends... but which old friends? On the journey of accomplishing the  Busy Professional tag, he had lost contact of almost everyone from his university. But in the desire to talk with some old friends, he started scrolling down his 600-contacts phonebook, and all of sudden his finger stopped at the name of a person whom he met only once in 2015. This name was "Shama Khan, Noida" He paused for a minute and scenes from 2015 started to run through his mind. Shama Khan, The same Shama Khan who was not merely his Facebook friend but also a senior in the industry, made his finger stop at...

नदी तुम, मैं पत्थर

I wrote these lines in Rishikesh.   "वो नदी सी बहती है, मैं पत्थर सा मिल जाता हूं वो आगे नई हो जाती है, मैं वहीं खड़ा रह जाता हूं ताकत है, शक्ति है वो न जाने कितनों की आफत है, प्यार से मिलती है, छूकर किनारा मेरा सब ले जाती है माया है, छाया है न जाने कैसी वो काया है, पहचानकर कर भी न जाने क्यों उसने ठुकराया है"

Damdama Lake : Weekend Gateway from Delhi

#RidingDiary01: Damdama Lake, Delhi to Sohna It was my week off and I had no plans for the day! I called up my friend and we decided to have a long ride of my Royal Machine, Bullet Classic 350. So we headed towards Damdama Lake, Sohna. It was an awesome trip for us. Check out what we did in video here :