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Showing posts from April, 2014

टूटते चुनावी मंडप

टूटते चुनावी मंडप  जैसे-जैसे चुनावों के समापन का समय नजदीक आता जा रहा है वैसे-वैसे ही लोगों के अंदर चुनावी उत्साह में गिरावट नजर आ रहा है। पहले गली-कुच्चे, नुक्कड़-चौराहों, बस स्टैंडों आदी पर घंटो सजने वाली चुनावी चौपालें अब उठने लगी है। ऐसे में इसके लिए न केवल मीडिया की भागीदारी बल्कि राजनेता भी जिम्मेदार हैं। एक के बाद एक ताबड़तोड़ रैलियां, जनसभाएं व प्रचार करने वाले राजनेता व उनके साथी चुनाव के होते ही एकदम अदृश्य हो गए हैं।  इसके पीछे निरंतर बदलती देश की राजनीतिक तस्वीर का भी हाथ हैै। क्या कार्यकर्ता, क्या राजनेता सभी के सभी अपने गढ़, अपने घरों को त्याग पहुंच गए काशी। ऐसे में अब उनके संसदीय क्षेत्रा या गढ़ में सजती चुनावी चौपालों का उठना तो लाज्मी ही है। साथ ही मीडिया भी उनके पीछे-पीछे काशी जा पहुंचा है। परंतु मतदाताओं को राजनीतिक मंडप के चुनावी चौपालों को बिखरता देख निराश नहीं होना चाहिए। क्योंकि यह तो राजनीति का मूलमंत्रा बन चुका है कि अपना काम बनता तो भाड़ में जाए जनता।  रजत त्रिपाठी की कच्ची कलम की श्याहि से… 

चुनावी महाभरत की रोमांचक टक्कर

चुनावी महाभरत की रोमांचक टक्कर देश में चुनावी रण शुरू हो चुका है और सभी की नजरें बनारस की सीट पर है। हों भी क्यों न, इस चुनावी महाभरत में सबसे रोमांचक टक्कर होने जा रही है। भाजपा के प्रधनमंत्राी पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और राजधानी दिल्ली की कुर्सी छोड़ भाग खड़े हुए पूर्व मुख्यमंत्राी अरविंद केजरीवाल आमने सामने हैं। ऐसे में यहां की चुनावी सरगर्मी और बढ़ जाती है। यदि बात की जाए मोदी कि तो ये सापफ दिखता है कि मोदी की लहर है परंतु यह मोदी को पूर्ण बहुमत दिला पाएगी यह नहीं यह कहना थोड़ पेचिदा हो जाता है। बनारस कई र्ध्मों का गढ़ है और इस चुनावी बयार में यहां मतदान का ध््रवीकरण हो रहा है। केजरीवाल खुद भी अब बनारस जा पहुंचे है। ऐसें में देखने वाली बात यह होगी कि क्या अपनी कुर्सी के लिए केजरीवाल भी संाप्रदायिक व जातिय राजनीति पर खुलकर उतर आएंगें? देश भर की चुनावी चौपाल में जिकर अब बनारस की तपती चुनावी रण का हो रहा है। और हो भी क्यों न जिस कदर पिछले कुछ महिनों में मीडिया ने केजरीवाल को चढ़ाया है उससे दर्शकों को भी केजरीवाल की रोजाना नई पटकथा देखने की लत लग गई है। ऐसे में पफैसला अब 16 मई को ही ह

चुनावी महाकुंभ का नया परपंच

                            चुनावी महाकुंभ का नया परपंच भारत के प्रत्येक पांच वर्षों में होने वाले राजनीतिक महाकुंभ का बिगुल बज चुका है। एक से एक राजनीतिक पंडितों ने अपने सभी यज्ञ, हवन व मंत्रों को इस महाकुंभ में छोंक दिया है। सब का एक मात्रा ही मकसद है, कुर्सी हथियाना। ऐसे में एक-एक कर सभी नेता अपने प्रत्येक दांव पेंच को खेल लेना चाहता है। कोई भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहता है। सभी एक से एक परपंच रचने में लगे हुए हैं। भले ही इन चुनावी परपंचों के खातिर किसी को कितना भी जलिल होना पड़े पर अब सब मंजुर है। ऐसे ही एक राजनीतिक पंडित केजरीवाल भी अपनी गुण भग करते  हुए मालूम होते हैं। उनके ऐसे गुणा भाग पर संदेह होना भी लाज्मी है। कैसे एक पूर्व मुख्यमंत्राी के उफपर एक के बाद एक हमले हो सकते हैं? क्यों केजरीवाल ने किसी भी हमले कि जांच के लिए रिपोर्ट दर्ज नहीं करवायी? कैसे एक ही नेताजी को बार बार मारा जा सकता है? अब चाहे इसे केजरीवाल का दुर्भाग्य कहिए या पिफर उनके द्वारा रचित एक नाटक, दोनों ही स्थिति इस महाकुंभ की क्षति होती गरिमा को बयान कर रही है। महाकुंभ में गोता मार के राजनेता, अपने दाग, ध

लीजिए शुरू हो गया साम्प्रदायिकता का खेल

लीजिए शुरू हो गया साम्प्रदायिकता का खेल परवान चढ़कर बोल रहा है राजनीति का सुरूर। राजनीति में कुर्सी हथिया लेने के बाद नेताओं के समक्ष अच्छे अच्छे नहीं टिकते हैं और जब बात हो इसी कुर्सी को हथियाने कि तो कोई भी नेता पीछे नहीं रहना चाहता है। सभी राजनेता एड़ी चोटी तक का जोर लगा इस कुर्सी को हथियाना चाहते हैं। भले ही इसके खतिर उन्हें हजारों झूठ बोलने पड़े या फिर विरोधी को रोकने के लिए किसी भी हद तक जाना पड़े, वह शान से सब करते हैं। परंतु सवाल यह खड़ा होता है कि इन राजनेताओं के ऐसे कर्म व कर्तव्य किस हद तक सही हैं। देश के लोकसभा चुनावों के प्रथम चरण में जहां अब एक सप्ताह भी बाकि नहीं वहां संप्रादायिकता का खेल खेलना क्या उचित है। अभी हाल ही में कोबरा पोस्ट के द्वारा किए गए स्टिंग ने पूरी राजनीति कि रणभूमि में हलचल पैदा कर दी है। बाबरी मस्जिद व अयोध्या कांड से शायद ही देश का कोई परिवार अछूता रह गया हो। परंतु ऐसे समय मे उस कांड को लेकर किए गए स्टिंग ने चुनावी कुरूक्षेत्रा कि सरगर्मी को बढ़ दिया है। भले ही स्टिंग ने आडवाणी, कल्याण सिंह व नरसिम्हा राव जैसे दिग्गज नेताओं कि छवि पर सवाल दाग दिए

बड़ बोले नेता चलाते हैं राजनीति

                     बड़ बोले नेता चलाते हैं राजनीति देश के आम चुनाव जैसे जैसे नजदीक आते जा रहे, वैसे वैसे नेताओं कीे शब्दावली में भी बदलाव आता जा रहा है। राजनीति में एक दूसरे के काम का आकलन कर अपेक्षा करना तो जनहीत के लिए ही लाभदायक साबित होता है। परंतु आज के परिपेक्ष में यह आकलन बिखरता सा नजर आ रहा है। एक से एक नेता दूसरे नेता का निरादर करने में लगे हुए हैं। यहां बात किसी एक दल या नेता कि नहीं अपितु बात हो रही है संपूर्ण देश को चलाने वाले नेताओं के आचरण की। पीछले कुछ दिनों से एक के बाद एक अटपटे बयान सुने को मिले। कोई किसी नेता कि बोटी बोटी कर देना चाहता है तो कोई किसी को कुत्ता, पाकिस्तानी, एके 49 और न जाने क्या क्या बना डालता है। चुनावी मौसम कि गर्मी का असर यह है कि अब तो स्वंय नेता ही नियमों का उल्लंघन करने का उपदेश देते हैं। चुनावी प्रक्रिया में छोलमाल करने के लिए खुद ही दोबारा मतदान करने को उत्साहित करते हैं। यह चुनावी सरगर्मी ही तो है जिस कारण वर्षों तक एक दल की रोटियां तोड़ने वाले नेता अब दूसरे गुटों में पलायन कर रहे हैं। आम तौर पर चुनावों में ऐसी रास लिलाएं देखने को म

पहले कुर्सी फिर राष्ट्र

                                         पहले कुर्सी फिर राष्ट्र राष्ट्र भक्ति, राष्ट्रीय ध्वज, व राष्ट्र भाषा का सम्मान क्या एक राष्ट्र के कुछ वर्गाें तक ही सीमित है? जी हां, ऐसा प्रश्न उठना लाजमी भी है। जब भारत सरकार के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम सरेआम जनता के समक्ष आकर अपनी लाचारी यह कहते हुए सिद्ध् करते हैं कि उन्हें हिन्दी नहीं आती। यह कहते हुए उन्हें तनिक भी ख्याल नहीं आया कि वो देश भक्ति कि भावनाओं से ओत-प्रोत राष्ट्र के वित्त मंत्री है। चुनावी माहौल में यह कैसी विडंबना है कि राष्ट्र का कार्यभार सभांलने वालों को ही राष्ट्र भाषा का ज्ञान नहीं है। खैर, बोसटन के हार्वर्ड बिज़्नेस स्कूल से पढ़े मंत्री जी से ऐसी उम्मीद कि जा सकती है। परंतु ऐसे में जब देश के चुनावी अखाड़े का मिजाज गरम हो तो यह रवैया उन्हें रणभूमि में धूल  भी चटवा सकता है। एक व्यक्ति विशेष नेता के खिलाफ मंत्री जी का चुनाव न लड़ पाना उनके न जाने कितने राज़ उजागर कर देगा। परंतु संदेह भी होता है कि यह मंत्री जी के दर्द कि अवाज थी यह चुनाव न लड़ने का बहाना। भाजपा के लगातार बढ़ते वर्चस्व से हताश हो चु