Skip to main content

Posts

Showing posts with the label Narendra Modi

मीडिया और प्रधानमंत्री मोदी!

Photo Credit : Outlook India प्र धानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में सरकार गठन के बाद से ही देश के तथाकथित चौथे स्तंभ पर शिकांजा कसना शुरू कर दिया है। इसका पहला प्रमाण तब मिला जब अपनी विदेश यात्राओं पर उन्होंने पत्रकारों की संख्या को काट दिया। प्रधानमंत्री के साथ विदेश दौरों पर जाने वाली पत्रकारों की टोली की परंपरा को नरेंद्र मोदी ने खत्म कर दिया। इस कदम के दो पहलुओं में से एक पहलु को लोगों ने सराहहा तो दूसरे पहलु पर ध्यान न देना वाजिब नहीं है। प्रधानमंत्री के साथ सरकारी खजाने पर विदेशों में मजे लुटने वाले पत्रकारों को रोक प्रधानमंत्री ने भले ही जनता के टैक्स से होने वाले खर्चों में थोड़ी कटौती कर दी हो लेकिन बावजूद इसके प्रधानमंत्री मोदी के इस कदम से मीडिया के साथ साथ देश के आवाम को अप्रतयक्ष रूप के काफी बड़ा नुकसान हो रहा है। मीडिया केवल खबरों को पहुंचान का काम ही नही करी बल्कि सरकार व जनता के बीच संवाद भी स्थापित करती है। एक ऐसा संवाद जिसमें दोनों तरफों से संवाद की संभावाना हो, जहां दोनों तरफ के विचारों व संवादों को एक दूसरे तक पहुंचाया जा सके। लेकिन विदेश यात्राओं में व्यस्त रह...

रणनीति का हिस्सा है ये चुनावी जीत

जीत के शंखनाद से यह घोषणा की गई कि विश्व के सबसे बडे़ गणतंत्रा के अगले प्रधनमंत्राी नरेन्द्र मोदी होंगे। इस घोषणा के साथ ही विश्व भर से बधईयों व शुभकामनाओं का ऐसा सिलसिला शुरू हो गया जिसके अभी तक थमने का नाम नहीं लिया जा रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने खुद पफोन कर मोदी को बधइयां दि और अमेरिका आने का न्यौता दिया।  चुनावी नतिजों के आते ही पूरे राष्ट्र में जीत का महोत्सव मनाया जाने लगा। ऐसा होना भी लाज्मी है। आखिरकार नरेन्द्र मोदी ने भाजपा को जो जीत दिलाई है उसके लिए भाजपाई न जाने कितने वर्षांे से प्यासे थे। इसके साथ ही भारत में 30 वर्षो के बाद पूर्ण बहुमत से एक तन्हाई राज वाली सरकार बनने जा रही है। इस चुनावी जीत ने पूरे देश को असीम खुशी का माहौल दिया है। मतदान के नतीजों से यह स्पष्ट हो जाता है कि देश के दिल और दिमाग में बस नरेन्द्र मोदी हैं। चुनावी नतिजों के आते ही मोदी अपनी मां के पास पहुचें और उनसे आर्शीवाद लिया। भला इसे किर्तिमान और क्या होगा । भाजपा के साथ साथ देश को एक नई दिशा देने के लिए मोदी ने दिन रात कड़ी मेहनत की है। उन्होंने एक निजी टी.वी. चैनल को दिए साक्षात्क...

आखिर अब आगे क्या …

जोरों-शोरों से चुनावी बिगुल बजा, महारथी मैदान में उतर आए, भीषण गरजना के साथ रणभूमि सजी और अब यह अपने समापन की और परंतु क्या वकई यह युद्ध समाप्त हुआ। क्या इसके उपरांत कोई नया बिगुल नहीं बजेगा, क्या कोई नया रण आरंभ नहीं होगा, क्या राष्ट्र की राजनीतिक सरजमीं ठंडी हो जाएगी। ऐसे ही तमाम सवाल देश के दिल में उफ्फान मार रहे हैं। आखिर अब नई सरकार बनने के बाद आगे क्या। जिस चुनावी लहर से देश ग्रस्त था, उसके समापन का रंग कैसा होगा। यह देखने के लिए पूरा विश्व उत्सुक है और उनका उत्सुक होना भी लाज्मी है। जो जन समर्थन इस चुनावी समर में दिखा, वह पहले कभी भी देखने को नहीं मिला। मतदान केंद्रों पर उमड़ी मतदाताओं की भीड़ यह साफ बायां कर रही थी कि जनादेश में जागरूता, कामनाएं, उम्मीद, और आशाएं अजागर हो उठीं हैं। वो एक बेहतर कल, एक बेहतर भविष्य और तमाम झंझटों से मुक्त एक समाज चाहता है। पर क्या चुनावी नतीजों का सूरज मतदाताओं की उम्मीद को ज्योतिर्मय पायेगा? मतदाताओं ने जिस जोश, उत्साह, जनसमर्थन से एकजुट होकर राष्ट्र हित के लिए मतदान किया, क्या वो नतीजों के बाद अदृशय हो जायेगा? सड़कों पर उतरी...

टूटते चुनावी मंडप

टूटते चुनावी मंडप  जैसे-जैसे चुनावों के समापन का समय नजदीक आता जा रहा है वैसे-वैसे ही लोगों के अंदर चुनावी उत्साह में गिरावट नजर आ रहा है। पहले गली-कुच्चे, नुक्कड़-चौराहों, बस स्टैंडों आदी पर घंटो सजने वाली चुनावी चौपालें अब उठने लगी है। ऐसे में इसके लिए न केवल मीडिया की भागीदारी बल्कि राजनेता भी जिम्मेदार हैं। एक के बाद एक ताबड़तोड़ रैलियां, जनसभाएं व प्रचार करने वाले राजनेता व उनके साथी चुनाव के होते ही एकदम अदृश्य हो गए हैं।  इसके पीछे निरंतर बदलती देश की राजनीतिक तस्वीर का भी हाथ हैै। क्या कार्यकर्ता, क्या राजनेता सभी के सभी अपने गढ़, अपने घरों को त्याग पहुंच गए काशी। ऐसे में अब उनके संसदीय क्षेत्रा या गढ़ में सजती चुनावी चौपालों का उठना तो लाज्मी ही है। साथ ही मीडिया भी उनके पीछे-पीछे काशी जा पहुंचा है। परंतु मतदाताओं को राजनीतिक मंडप के चुनावी चौपालों को बिखरता देख निराश नहीं होना चाहिए। क्योंकि यह तो राजनीति का मूलमंत्रा बन चुका है कि अपना काम बनता तो भाड़ में जाए जनता।  रजत त्रिपाठी की कच्ची कलम की श्याहि से… 

चुनावी महाभरत की रोमांचक टक्कर

चुनावी महाभरत की रोमांचक टक्कर देश में चुनावी रण शुरू हो चुका है और सभी की नजरें बनारस की सीट पर है। हों भी क्यों न, इस चुनावी महाभरत में सबसे रोमांचक टक्कर होने जा रही है। भाजपा के प्रधनमंत्राी पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और राजधानी दिल्ली की कुर्सी छोड़ भाग खड़े हुए पूर्व मुख्यमंत्राी अरविंद केजरीवाल आमने सामने हैं। ऐसे में यहां की चुनावी सरगर्मी और बढ़ जाती है। यदि बात की जाए मोदी कि तो ये सापफ दिखता है कि मोदी की लहर है परंतु यह मोदी को पूर्ण बहुमत दिला पाएगी यह नहीं यह कहना थोड़ पेचिदा हो जाता है। बनारस कई र्ध्मों का गढ़ है और इस चुनावी बयार में यहां मतदान का ध््रवीकरण हो रहा है। केजरीवाल खुद भी अब बनारस जा पहुंचे है। ऐसें में देखने वाली बात यह होगी कि क्या अपनी कुर्सी के लिए केजरीवाल भी संाप्रदायिक व जातिय राजनीति पर खुलकर उतर आएंगें? देश भर की चुनावी चौपाल में जिकर अब बनारस की तपती चुनावी रण का हो रहा है। और हो भी क्यों न जिस कदर पिछले कुछ महिनों में मीडिया ने केजरीवाल को चढ़ाया है उससे दर्शकों को भी केजरीवाल की रोजाना नई पटकथा देखने की लत लग गई है। ऐसे में पफैसला अब 16 मई को ही ह...

बड़ बोले नेता चलाते हैं राजनीति

                     बड़ बोले नेता चलाते हैं राजनीति देश के आम चुनाव जैसे जैसे नजदीक आते जा रहे, वैसे वैसे नेताओं कीे शब्दावली में भी बदलाव आता जा रहा है। राजनीति में एक दूसरे के काम का आकलन कर अपेक्षा करना तो जनहीत के लिए ही लाभदायक साबित होता है। परंतु आज के परिपेक्ष में यह आकलन बिखरता सा नजर आ रहा है। एक से एक नेता दूसरे नेता का निरादर करने में लगे हुए हैं। यहां बात किसी एक दल या नेता कि नहीं अपितु बात हो रही है संपूर्ण देश को चलाने वाले नेताओं के आचरण की। पीछले कुछ दिनों से एक के बाद एक अटपटे बयान सुने को मिले। कोई किसी नेता कि बोटी बोटी कर देना चाहता है तो कोई किसी को कुत्ता, पाकिस्तानी, एके 49 और न जाने क्या क्या बना डालता है। चुनावी मौसम कि गर्मी का असर यह है कि अब तो स्वंय नेता ही नियमों का उल्लंघन करने का उपदेश देते हैं। चुनावी प्रक्रिया में छोलमाल करने के लिए खुद ही दोबारा मतदान करने को उत्साहित करते हैं। यह चुनावी सरगर्मी ही तो है जिस कारण वर्षों तक एक दल की रोटियां तोड़ने वाले नेता अब दूसरे गुटों में पलायन कर रह...

दंगों की आग पर सिकेगी लोकसभा चुनावों की रोटी

दंगों की आग पर सिकेगी लोकसभा चुनावों की रोटी इंसाफ का इंतजार करती बूढ़ी हो गई आंखें, जख्म पर मोटी परत चढ़ रही थी, पीढ़ी आव्रफोश को दबा आगे बढ़ रही थी, तभी लोकसभा चुनावों ने दस्तक दी और सब दोबारा स्पष्ट रूप से समक्ष आ गया। वो दर्द का मंजर, वो कत्लेआम, वो नरसंहार वापस ताजा हो गया। समुदायों में पूर्वजों के अपमान व नरसंहार के लिए इंसापफ का आव्रफोश जाग गया। देश के तमाम सियासी नेता चुनावों के समीप आते ही एक दूसरे के खिलापफ दंगों की राजनीति खेलना शुरू कर देते हैं। चाहे वो भाजपा के खिलापफ गुजरात के सन् 2002 के दंगों को लेकर हो या पिफर कांग्रेस के खिलापफ सन् 1984 के सिख दंगे हों। सियासत की गरमी इन दंगों से बढ़ती जा रही है। कांग्रेस व भाजपा का तो इतिहास रहा है की ये दोनों अपने सियासी पफायदों के लिए दंगों व समुदायिक बंटवारों का दांव खेलकर आगे बढ़ते गए हैं। परंतु राजधनी में भ्रष्टाचार व आम आदमी के मुद्दों से जीतकर आई आम आदमी पार्टी भी अब समुदायिक बंटवारे की राजनीति में उतर आई है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांध्ी के द्वारा एक टीवी कार्यव्रफम में दिए गए साक्षत्कार में उन्होंने सन् 1984 के सिख दंगों...