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अपना ही घर लूटता रहा…

अपना ही घर लूटता रहा…  मैं दुनिया बचाने का दावा करता रहा, न जाने कितने जंग मै लड़ता रहा, पर देखा न मैंने अपना ही मोहल्ला   अपना ही मोहल्ला लूटता रहा जमाना बदलने का दावा मैं ठोकता रहा, देश के ठेकेदारों को चुनौतियां देता रहा, पर भूल गया अपने ही गलियों के गड्ढे  और अपना ही घर लूटता रहा लड़ने सड़कों पर अकेले निकलता रहा, खिलाफत परम्पराओं, फतवाओं की करता रहा पर दिखा नहीं अपने गाँव का गन्दा क़ानून और यहाँ अपना ही गाँव लुटता रहा। दुन्ध्ले जब जीत का रास्ता होने लगा, दिल में हार का डर जब सताने लगा, फिर वापस एक नज़र मुड़कर देखा  और पाया यहाँ अपना घर लूटता रहा। घर लौट घर की लड़ाई जीत गया, बात धीरे धीरे मैं पते की समझ गया ज़बाने की खातिर पहले बीज ही अच्छे बोने होंगे,  वरना झूठे दावों से लूटते घरों के ही नज़ारे होंगे।  रजत त्रिपाठी की कच्ची कलम कि श्याही से.…