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आखिर अब आगे क्या …

जोरों-शोरों से चुनावी बिगुल बजा, महारथी मैदान में उतर आए, भीषण गरजना के साथ रणभूमि सजी और अब यह अपने समापन की और परंतु क्या वकई यह युद्ध समाप्त हुआ। क्या इसके उपरांत कोई नया बिगुल नहीं बजेगा, क्या कोई नया रण आरंभ नहीं होगा, क्या राष्ट्र की राजनीतिक सरजमीं ठंडी हो जाएगी। ऐसे ही तमाम सवाल देश के दिल में उफ्फान मार रहे हैं। आखिर अब नई सरकार बनने के बाद आगे क्या। जिस चुनावी लहर से देश ग्रस्त था, उसके समापन का रंग कैसा होगा। यह देखने के लिए पूरा विश्व उत्सुक है और उनका उत्सुक होना भी लाज्मी है। जो जन समर्थन इस चुनावी समर में दिखा, वह पहले कभी भी देखने को नहीं मिला। मतदान केंद्रों पर उमड़ी मतदाताओं की भीड़ यह साफ बायां कर रही थी कि जनादेश में जागरूता, कामनाएं, उम्मीद, और आशाएं अजागर हो उठीं हैं। वो एक बेहतर कल, एक बेहतर भविष्य और तमाम झंझटों से मुक्त एक समाज चाहता है। पर क्या चुनावी नतीजों का सूरज मतदाताओं की उम्मीद को ज्योतिर्मय पायेगा? मतदाताओं ने जिस जोश, उत्साह, जनसमर्थन से एकजुट होकर राष्ट्र हित के लिए मतदान किया, क्या वो नतीजों के बाद अदृशय हो जायेगा? सड़कों पर उतरी...

बड़ बोले नेता चलाते हैं राजनीति

                     बड़ बोले नेता चलाते हैं राजनीति देश के आम चुनाव जैसे जैसे नजदीक आते जा रहे, वैसे वैसे नेताओं कीे शब्दावली में भी बदलाव आता जा रहा है। राजनीति में एक दूसरे के काम का आकलन कर अपेक्षा करना तो जनहीत के लिए ही लाभदायक साबित होता है। परंतु आज के परिपेक्ष में यह आकलन बिखरता सा नजर आ रहा है। एक से एक नेता दूसरे नेता का निरादर करने में लगे हुए हैं। यहां बात किसी एक दल या नेता कि नहीं अपितु बात हो रही है संपूर्ण देश को चलाने वाले नेताओं के आचरण की। पीछले कुछ दिनों से एक के बाद एक अटपटे बयान सुने को मिले। कोई किसी नेता कि बोटी बोटी कर देना चाहता है तो कोई किसी को कुत्ता, पाकिस्तानी, एके 49 और न जाने क्या क्या बना डालता है। चुनावी मौसम कि गर्मी का असर यह है कि अब तो स्वंय नेता ही नियमों का उल्लंघन करने का उपदेश देते हैं। चुनावी प्रक्रिया में छोलमाल करने के लिए खुद ही दोबारा मतदान करने को उत्साहित करते हैं। यह चुनावी सरगर्मी ही तो है जिस कारण वर्षों तक एक दल की रोटियां तोड़ने वाले नेता अब दूसरे गुटों में पलायन कर रह...

पहले कुर्सी फिर राष्ट्र

                                         पहले कुर्सी फिर राष्ट्र राष्ट्र भक्ति, राष्ट्रीय ध्वज, व राष्ट्र भाषा का सम्मान क्या एक राष्ट्र के कुछ वर्गाें तक ही सीमित है? जी हां, ऐसा प्रश्न उठना लाजमी भी है। जब भारत सरकार के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम सरेआम जनता के समक्ष आकर अपनी लाचारी यह कहते हुए सिद्ध् करते हैं कि उन्हें हिन्दी नहीं आती। यह कहते हुए उन्हें तनिक भी ख्याल नहीं आया कि वो देश भक्ति कि भावनाओं से ओत-प्रोत राष्ट्र के वित्त मंत्री है। चुनावी माहौल में यह कैसी विडंबना है कि राष्ट्र का कार्यभार सभांलने वालों को ही राष्ट्र भाषा का ज्ञान नहीं है। खैर, बोसटन के हार्वर्ड बिज़्नेस स्कूल से पढ़े मंत्री जी से ऐसी उम्मीद कि जा सकती है। परंतु ऐसे में जब देश के चुनावी अखाड़े का मिजाज गरम हो तो यह रवैया उन्हें रणभूमि में धूल  भी चटवा सकता है। एक व्यक्ति विशेष नेता के खिलाफ मंत्री जी का चुनाव न लड़ पाना उनके न जाने कितने राज़ उज...