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Showing posts from July, 2014

कॉलेज का पहला दिन, कैसे करें इंजॉय

कॉलेज का पहला दिन, कैसे करें इंजॉय   दिल्ली के सभी कॉलेजों में तकरिबन एडमिशन पूरे हो चुके हैं और सभी स्टूडेंटस अपने कॉलेज को लेकर काफी उत्साहित हैं। नए कॉलेज को लेकर सभी स्टूडेंट्स के मन में ढेर सारी उम्मीदों के साथ कुछ सवाल व डर भी हैं। जहां एक ओर अच्छे दोस्त, अच्छा फ्रेंड सर्किल, अच्छे माहौल की उम्मीद सभी स्टूडेंटस कर रहे हैं। तो वहीं दूसरी ओर अकेलापन, अनजानी जगह व रैगिंग का डर काफी स्टूडेंट्स को अंदर ही अंदर डरा रहा है। ऐसे में स्टूडेंट्स को घबराने की जरूरत नहीं है। उन्हें बस कुछ बातों का ख्याल रखना है और वो अपनी कॉलेज लाइफ खुल कर इंजॉय कर सकते हैं। रैगिंग से घबराएं नहीं : रैगिंग फ्रेशर स्टूडेंट्स और सिनियर्स के मेल मिलाप का एक तरीका है। लेकिन अब इसे पूरी तरह बंद कर दिया है, इसलिए फ्रेशर्स को इससे डरने की कोई जरूरत नहीं है। रहें कॉन्फिडेंट : कॉलेज के पहले दिन से ही कॉन्फिडेंट रहें। अपने कॉन्फिडेंस को मेनटेन करने की कोशिश करें। लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल भी नहीं है कि आप घमंड में रहें और मिस्टर या मिस कॉन्फिडेंट बनने की बजाए आप मिस्टर या मिस एटिट्यूट बन जाए

इन बूढ़ी आँखों ने देखा है.…

इन बूढ़ी आँखों ने देखा है.…  कामयाब चेहरों को खून में नहाये देखा है मैंने, फेकने वालों को उनके ही घरों में पीटते भी देखा है मैंने, इस बूढी आँखों की झुर्रियों पर मत जाओ जालिम, पसीने से मंज़िलों के पते  बदलते देखा है मैंने ... आशिक़ी में पहलवान शेरोन को रोते देखा है मैंने, मोहब्बत में दहाड़ती कलियों को भी देखा है मैंने, इस बूढी आँखों की झुर्रियों पर मत जाओ जालिम, आशिक़ी में बेस बसाये घरों को उजड़ते देखा है मैंने ... कई सावन के झूलों में झूलती हंसी को देखा है मैंने, कई मासूमों को निर्मम पीटते भी देखा है मैंने, इस बूढी आँखों की झुर्रियों पर मत जाओ जालिम, कालिख से नहाये हीरे को भी चमकते देखा है मैंने ... भोर रवि की धीमी किरणों में कलियों को मुरझाते देखा है मैंने, चाँद की रोशिनी से भी दहकते जवालामुखी को देखा है मैंने, इस बूढी आँखों की झुर्रियों पर मत जाओ जालिम, तारों को भी आसमान से जमीं पर उतरते देखा है मैंने ... गले लगने वालों को पीठ में खंज़र घोंपते देखा है मैंने  बाहर से आये, मरहम लगाते पैगम्बर को भी देखा है मैंने, इस बूढी आँखों की झुर्रि

मैं डरता हूँ

मैं डरता हूँ  मैं डरता हूँ इस दिन रात बदलती दुनिया से, मैं डर जाता हूँ इस सीमेंट के बढ़ते जंगल से, नोंचती है मुझको बढ़ती भीड़ में भी तन्हाई, जहाँ आधुनिकता के नाम पर बड़ियां चलती संग बन परछाईं।  मैं डरता हूँ इस विकास के दानव से,  मैं डर जाता हूँ इस धरती माँ को खंगालते मानव से, रूह कांपती है मेरी देख उजड़ते खेतों को, जहाँ लहलहाती थी फसलें देख वहाँ बनते पैसे के महलों को।  मैं डरता हूँ इस बिलखती गंगा, जमुना, सरस्वती के मौत मांगने से, मैं डर जाता हूँ इनके निर्मल आँचल के कहीं खो जाने से, आँखों से बहती है खून की नदियां इनकी बेबस छटपटाहट पर, जहाँ धूं-धूँकर जल रही इनकी ही अस्थियां अपने ही घाटों पर।  मैं डरता हूँ इस चूहे से दुबकते बाघ,शेर, चीते से, मैं डर जाता हूँ एसी कमरों में बैठे बढ़ई के फीते से, अपने ही घर में बेघर तलाशता हूँ जंगल के आँगन को, जो भेंट चढ़ गया लालची बढ़ई की नीची दबी खानन को।  रजत त्रिपाठी की कच्ची कलम की श्याही से...